हमने उनको जिंदगी बनादीया
लेकिन उनकी जिंदगी कुछ अलग ही थी
हम कभी शबरी बने,
कभी मीरा, कभी राधा
रुक्मिणी बनने की चाह कभी न था
जिंदगी गुजरती गई, दिन पीगलते
रात भिगता, शिशिर ताड़पता
सोचा, खिड़की खोल दूं,
दिवार तोड़ दूं, दरवाजा नया बना लू
नई हवा की साथ चलदी
नये रास्ते देखीं, चट्टाणे छड़ी
लेकिन क्या, हर मंज़िल की पार ओ !
हम न अंदर उनको तोड़पाए,
न पूरी पीगाल पाए
उनसे पूछके भी करते क्या
मानना यही था की
हर जिंदगी साथ जीने के लिए नही
अलग रह कर भी एक दूसरे के लिए जीना
मन ज़ोर से चिल्लाता,
तो यहाँ लेखे आते क्यू
संगम होता ही नही
ओ हसकर बोलते
कौन सा मिलना, कौन सा जीना,
सिर्फ़ पात्र निभाओ,
कर्म करो
तुम मैं ही हूँ
मैं तुम भी हूँ
सब कुछ मैं ही तो हूँ